सुजानपुर की होली
कटोच वंश के 480 वें राजा संसारचंद सुजानपुर के ऐतिहासिक चौगान में लोगों के साथ होली मनाया करते थे। इस बात का खुलासा उनके कार्यकाल पर हुए शोध में हुआ है। संसारचंद श्रीकृष्ण के उपासक थे। यही कारण था कि उन्होंने रंगों के इस पर्व को अपनी कांगड़ा कलम में भी उकेरा है। वहीं, टीहरा स्थित उनकी राजधानी में भी होली मनाई जाती थी।
पहले रानियों संग और बाद में सुजानपुर के विशाल चौगान में प्रजा के साथ होली खेलते थे। शोध में यह बात भी सामने आई है कि टीहरा से सुजानपुर या ब्यास नदी तक रानियां रास्ते से नहीं बल्कि सुरंग के रास्ते से जाती थीं। टीहरा में सुरंग के अवशेष मिले हैं। राष्ट्रीय शोध संस्थान नेरी के शोधकर्ता डॉ. रमेशचंद शर्मा के मुताबिक संसारचंद होली पर आम लोगों से साल में एक बार ही मिलते थे। शोध कुछ माह पहले ही पूरा हुआ है।
सुजानपुर के होली उत्सव को 1984 में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजा वीरभद्र सिंह ने राज्यस्तरीय होली उत्सव की घोषणा की थी। मुख्यमंत्री ने वर्ष 2008 में टीहरा में भी सांस्कृतिक कार्यक्रम करवाने की घोषणा की थी, लेकिन इस पर अमल नहीं हो पाया है। डीसी अभिषेक जैन का कहना है कि घोषणा उनके कार्यकाल में नहीं हुई है। इसे लागू किया जाएगा।
.. इधर देवता भी होते हैं होली में शरीक
बंजार में देवता भी लोगों के साथ होली मनाते हैं। देवता हारियानों और देवलुओं के साथ झूमते नजर आते हैं। मंगलौर स्थित महाऋषि मरकडेय मंदिर में यह परंपरा हर साल निभाई जाती है। देवता मंजा गांव से मंगलौर आते हैं और देवलू पारंपरिक कुल्लवी परिधानों के ढोल नगाड़ों से उनका स्वागत करते हैं। देवता के कारदार जीवन चंद शास्त्री का कहना है कि यह पर्व यहां पर हजारों सालों से मनाई जा रही हैं।
देवता हारियान दिनभर देवरथ के सामने नाटी डालते है और दोपहर बाद नाचते हुए देव रथों पर गुलाल फेंका जाता है। बताया जाता है कि 13 वीं शताब्दी के आसपास यहां सेन वंश के क्रूर शासक मंगल सेन का राज था। उसकी राजधानी मंगलौर के बेहड़े में थी। राजा मांस का शैकीन था। एक दिन शिकारियों को जानवार का मांस न मिला तो उन्होंने एक मुर्दे को काटकर राजा को पेश किया। राजा को उस मांस का स्वाद अच्छा लगा तो उसने रोजाना उस मांस की मांग की।
मुर्दा न मिलने से सैनिक रोज निर्दोष लोगों को मारते और उनका मांस राजा के सामने पेश करते। प्रजा पर बढ़ते अत्याचार को देखते हुए कारकूनों ने देवता और मरकडेय ऋषि से रक्षा की गुहार की। देवता राजा को शिकार के बहाने जगंल में ले गए। पेड़ के नीचे बैठे राजा के उपर चिलगोजा गिरा और उसकी मौत हो गई।
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